Home महाराष्ट्र समाजवादी हैं भारत में इसराइल के सबसे अच्छे मित्र और पैरोकार!(भाग -1)

समाजवादी हैं भारत में इसराइल के सबसे अच्छे मित्र और पैरोकार!(भाग -1)

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देश में आजकल कुछ ‘समाजवादी’ इसराइल-फ़िलिस्तीन-अरब संघर्ष को लेकर काफ़ी घड़ियाली आंसू बहा रहे हैं और इसराइल द्वारा किये जा रहे अरबों के नरसंहार की निंदा कर रहे हैं। साथ ही ये तथाकथित ‘सेक्युलर’ लोग यह तर्क भी दे रहे हैं कि “उनके नेता राममनोहर लोहिया ने 74 साल पहले जुलाई 1950 में इसराइल-अरब संघर्ष को लेकर जो चेतावनी दी थी, अगर उस समय उनकी बात मान ली गयी होती, तो आज पश्चिम एशिया में वैसा ख़ून-ख़राबा नहीं हो रहा होता, जो आज हो रहा है। और हैवानियत के सारे मंज़र आज दुनिया तमाशबीन बनकर देख रही है।”

एक समाजवादी चिंतक प्रो. राजकुमार जैन ने अपने एक ताज़ा लेख में 1950 में दिए गए लोहिया के एक बयान को उद्धृत करते हुए लिखा है :

“मैंने इसराइल के प्रधानमंत्री बेन गुरियन और अरब लीग के नेताओं की मीटिंग कराने की कोशिश की थी। इसराइल के प्रधानमंत्री ने मुझसे कहा था कि वे अरब नेताओं से मिलने के लिए कहीं भी जाने को तैयार हैं। मुझे लगा था कि सीमाओं की गारंटी तो प्रभावी की ही जा सकती है, हालांकि फिलिस्तीन के अरब शरणार्थियों की समस्या को हल करने में बहुत कठिनाई होगी। किसी भी स्थिति में इस्राइल के लिए यह अच्छा होगा कि वह नाज़रेथ और अन्य स्थानों के अरबों को न केवल समान नागरिकता की औपचारिक सुविधा दें, बल्कि उन्हें सम्मानजनक जीवन की वह तमाम सुविधाएं भी दे, जो यहूदियों को दी जा रही है। मैं यह समझ नहीं पाया हूं कि अरबों और यहूदियों के लिए सामूहिक बस्तियां बनाने की पहल क्यों नहीं की जा सकती। इस बीच मिस्र में चुनाव हुए हैं और मिलनसार नहास पाशा वहां प्रधानमंत्री बने हैं। मैंने जब 6 महीने पहले उनसे बात की थी, तो वह तीसरे खेमे के बारे में आशान्वित नहीं दिखे थे, लेकिन अगर भारत सकारात्मक नीति अपनाए, तो उनका मन भी बदल सकता है। जैसे भी हो नहास पाशा और आजम पाशा की बेन गुरियन से मीटिंग होनी चाहिए। इसका कुछ तो फायदा होगा, भले ही वह इसराइल-अरब युद्ध को न रोक पाए। भले ही कितने युद्ध हो जाएं, लेकिन अंततः समझौता तो होना ही चाहिए इस तरह की बैठकें इसमें सहायक ही होती है। एक-न-एक दिन इसराइल और अरब दुनिया के बीच कुछ संघात्मक व्यवस्था बनानी ही पड़ेगी। अगर दुनिया में कहीं अंतिम व्यक्ति तक युद्ध करने जैसी भावना मुझे दिखी, तो वह इसराइल में ही दिखी। जब मैंने इसराइल के एक उत्साही नौजवान से कहा कि 8 करोड़ अरब शत्रुओं के सामने 20 लाख यहूदियों के टिके रहने की कोई संभावना नहीं है और किसी दिन अरबों के पास भी यहूदियों जितने हथियार आ जाएंगे, तो उसने अपने शांत उत्तर से मुझे डरा दिया। उसने कहा कि उनके लिए जाने की कोई जगह नहीं है। आश्चर्य की बात है कि इस देश में जहां हर लड़की मशीनगन चला सकती है, महात्मा गांधी की आत्मकथा हर उस नौजवान ने पढ़ी है, जिससे मैं मिला। गहराई-गहराई को आमंत्रित करती है, चाहे वह हिंसक हो या अहिंसक। इसराइल एशियाई देश है। उसके पास इतने मानव संसाधन और प्रतिभाएं हैं कि किसी और देश में इतनी नहीं होगी। वह नए ढंग के जीवन के प्रयोग कर रहा है, विशेषकर कृषि में। शांति और पुनर्निर्माण के कार्य में इसराइल की साझेदारी सारे एशिया को, जिसमें अरब भी शामिल है, लाभान्वित करेगी। भारत सरकार को इसराइल को मान्यता देने में देरी नहीं करनी चाहिए। मैं यही बात मिस्र की सरकार से भी कहना चाहता हूं। मैं यह बताने की जरूरत नहीं समझता कि मैंने मिस्र में अपने को ज्यादा घर जैसा सहज महसूस किया बनिस्बत इसराइल के लोगों के बीच, क्योंकि काहिरा में गंदगी, शोर और अनुशासनहीनता कानपुर की तरह ही है। यह दुःखों और उम्मीदों का रिश्ता और संभवत: दोनों देशों की संस्कृतियों का एक जैसा होना भी हमें एक दूसरे के करीब लाता है।”

यह 1950 में इसराइल-अरब संघर्ष के बारे में राममनोहर लोहिया की राय थी। इतना ही नहीं, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी और लोहिया की सोशलिस्ट पार्टी व बाद में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के ज़्यादातर नेता (दो-चार अपवादों को छोड़कर, जैसे राजनारायण और मधु लिमये) दरअसल इसराइल से ना सिर्फ़ हमदर्दी रखते थे, बल्कि इसराइल के पक्ष में ज़ोरदार ढंग से आंदोलन भी चलाते थे।

लोहिया के एक बहुत ही क़रीबी दोस्त अकबरपुर-फ़ैज़ाबाद के सिब्ते मोहम्मद नक़वी (वे उत्तर प्रदेश के पूर्व समाजवादी मंत्री और सांसद मुख़्तार अनीस के मामू और ससुर भी थे) ने 3 जुलाई 1967 को डॉ लोहिया को एक ख़त लिखा। इस ख़त में उन्होंने लिखा कि :

जनाब डॉक्टर साहेब,

आपकी तरफ से अध्यात्म जी का 28 जून का, और आपका 30 जून का पत्र मुझे एक साथ मिला। बड़ी ख़ुशी हुई। मार खाना तो शायद मेरे भाग्य में आप से ज़्यादा है। (लोहिया ने अपने 30 जून के पत्र में लिखा था “प्रिय सिब्ते मुहम्मद, तुम्हारा ख़त ‘जन’ में पढ़ा। मुझे तो सब तरफ़ से मार खाना बदा है, तुम कहाँ तक बचाओगे”)। मैं तो कभी-कभी ऐसा सोचता हूँ कि शायद आप भी मुझे मार रहे हैं। सब्र तो इस ख़्याल से आता है कि मार तो हर उस आदमी को खानी पड़ेगी जो दो जीभें न कर सके….

कल या परसों के समाचार पत्रों में जॉर्ज फ़र्नांडिस साहब का मैंने इसराइल के पक्ष में एक संयुक्त वक्तव्य पर हस्ताक्षर देखा और मुझे बड़ा दुःख हुआ। और आज जब ‘जन’ 28 मिला, तो वह दुःख और बढ़ा और मुझे खेद है कि इस क्रम में जो विचारधारा आपके द्वारा संसद में प्रतिपादित हुई है, उसे मैं ग़लत ही नहीं, अन्यायपूर्ण भी मानता हूँ। गाँधी जी ने 26 नवंबर 1938 के ‘हरिजन’ में एक लेख लिखा था, जिसके एक महत्वपूर्ण अंश का अनुवाद इस प्रकार है :

“मेरी तमाम हमदर्दियां यहूदियों के साथ हैं, लेकिन हमदर्दियां न्याय के तक़ाज़ों से आंखें नहीं मुंदवा सकतीं। यहूदियों के लिए क़ौमी देश बनाने की चीख़ पुकार में मेरे लिए कोई अपील नहीं है। फ़िलस्तीन, अरबों की उसी तरह संपत्ति है, जैसे बर्तानिया अंग्रेज़ों की और फ़्रांस फ़्रांसीसियों की। यहूदियों को अरबों पर लादना ग़लत है।”

इस तरह अगर आप विचारेंगे, तो स्वयं आपको ‘अरब-इसराइल महासंघ’ की बात या इसराइल राज्य के अस्तित्व का स्वीकार आपको स्वयं न्याय संगत नहीं दिखेगा। ‘अरब-इसराइल महासंघ’ की बात वैसी नहीं है जैसे हिंदुस्तान-पाकिस्तान, कोरिया और बर्लिन की है। इसराइल का अरब से वह रिश्ता है जो तिब्बत का चीन से। यह हमारी कमज़ोरी है कि शताब्दियाँ बीत जायें, हम तिब्बत को चीन के चंगुल से न निकाल सकें, लेकिन जब हम या खुद तिब्बत की जनता चीन की पाशविक बेड़ी तोड़ने के क़ाबिल हो जाये, उस वक़्त ‘जो हो गया सो हो गया’ को मान्यता देकर कहना कि अच्छा, चीन और तिब्बत का महासंघ बनवा दिया जाये, किसी को अच्छा लगे या बुरा लगे, मुझे तो हरगिज़ अच्छा न लगेगा। हिटलर का रवैय्या यहूदियों के साथ बड़ी निर्दयता और बर्बरता का रहा है, लेकिन उनको बसाने के लिए अरब अपने घर से उजाड़े जाएँ, इसका औचित्य मुझे तो नहीं दीखता। आप कृपया कर इस समस्या पर नए सिरे से ध्यान दें।

आशा है कि इस चिट्ठी से अगर आपको दुःख हो तो मुझे अपना मान के क्षमा करेंगे।

 

आपका

*सिब्ते*

राममनोहर लोहिया ने सिब्ते मुहम्मद के इस ख़त का जवाब 26 जुलाई 1967 को दिया :

“प्रिय सिब्ते,

किसी हद तक तुमने ठीक ही लिखा है कि हर सुधार की दो शक्लें होती हैं, एक संभव और दूसरी सम्पूर्ण …।

तुम को लग सकता है कि यकसाँ निजी क़ानून के मामले में, मैं शायद अति कर गया। ज़रा इस बात को भी सोचना कि महात्मा गाँधी हिन्दू-मुसलमान के मामले में शायद थोड़ी कमी और मौक़ेबाज़ी कर गए। मुझे अक्सर मन में आता है कि मैं कितना बेवक़ूफ़ रहा कि हर मामले में किसी-न-किसी का विरोध करता रहा, जेल जाता रहा, लेकिन अपनी ज़िंदगी के सबसे बड़े ज़ुल्म और अन्याय, यानि बंटवारे के ख़िलाफ़ कुछ भी न कर पाया। इतना मौक़ेबाज़ बन गया, अपनी समझ के कारण नहीं, बल्कि उस ज़माने के नेताओं की मौक़ेबाज़ी के कारण।

जब तुर्की के मुसलमान ख़िलाफ़त ख़त्म कर रहे थे, तब हिंदुस्तान के मुसलमान और हिन्दू भी गाँधी जी के नेतृत्व में “बोली अम्मा मोहम्मद अली की, जान बेटा ख़िलाफ़त पे दे दो” गा रहे थे। पता नहीं, इन तरीक़ों से झुण्ड को इकठ्ठा कर लेना कितना अच्छा काम हुआ करता है …।

तुमने इसराइल के बारे में गांधीजी का उद्धरण दिया है। मेरे बोलने और लिखने से उससे भी बड़े उद्धरण शायद निकल सकोगे। मैंने तो इसराइल को एशिया की छाती पर यूरोप का ख़ंजर कहा था। लेकिन अब सवाल पुरानी बातों का नहीं। अगर ऐसे ही पुरानी बातें उठाते रहोगे, तो फिर लोग कहना शुरू करेंगे कि ज्ञानवापी (वाराणसी) के पास मस्जिद को ठीक करके उसको पुरानी शकल में पहुंचाओ और मंदिर बनाओ, क्योंकि आखिर वहां मंदिर ही था। इतिहास की बहुत सी बातों को पचाना पड़ता है, लेकिन पचाने का ठीक मतलब समझना। आगे काम ठीक हो। पचने का यह मतलब नहीं कि जो कुछ हुआ, उसको सही मान लिया जाये, बल्कि यह कि जो कुछ हुआ, उस पर ग़ुस्सा न करके पछतावा करके ऊपर उठा जाये। तुमने जो मिसालें दी हैं, वो अगर ज़्यादा सोचोगे, तो तुम्हारी दृष्टि सुधरेगी। तिब्बत को स्वतंत्र करने का मतलब तिब्बत को ख़त्म करना नहीं होता। न भारत-पाकिस्तान के एके अथवा संघ से कोई ख़त्म होता है। और अगर ख़त्म भी होते हैं, तो दोनों ओर उसकी जगह हिंदुस्तान बनता है। उसी तरह से जब इसराइल के बारे में सोचोगे तो इसराइल को ख़त्म करने का मतलब समझना। आज के 22-23 लाख यहूदियों में से मैं समझता हूँ, सब नहीं तो 15-20 लाख को मारे बिना इसराइल ख़त्म नहीं हो सकता। कहा कई क़ौमों ने है कि हम ख़ून की आख़िरी बूँद तक लड़ेंगे। इतिहास में अभी तक ऐसी कोई क़ौम नहीं हुई और शायद होगी भी नहीं। लेकिन उसके पास तक पहुँचने वाली क़ौम अगर कोई होगी तो यही इसराइली। फिर जैसे-जैसे अरबी आधुनिक और शक्तिशाली होते जायेंगे, वैसे-वैसे उनका मन इसराइल के साथ संघ बनाने का होता जायेगा।

ख़त लिखते रहना।

तुम्हारा

*राममनोहर लोहिया*

इसके जवाब में सिब्ते मोहम्मद ने 30 जुलाई 1967 को डॉ. लोहिया को एक और लंबा ख़त लिखा। इस ख़त में उन्होंने लिखा :

जनाब डॉक्टर साहब,

… मुझे हरगिज़ यह नहीं लगता कि यकसां निजी क़ानून के मामले में आप ‘अति’ कर गए। मैंने कहना यह चाहा था कि जिस गति से आप ‘अति’ चाहते हैं, वो शायद अभी अव्यावहारिक और असंभव है… गाँधी जी ने आपसे कम ज़्यादा आधी शताब्दी पहले का हिंदुस्तान देखा था… इसलिए मैं यह नहीं समझता कि इस मामले (हिन्दू-मुसलमान के मामले) में गाँधी जी से कोई कमी हुई।

हिंदुस्तान-पाकिस्तान, वियतनाम, जर्मनी की परिस्थिति जो है, तिब्बत और इसराइल की उससे भिन्न है। वो एक थे, एक हैं। ताक़तवर स्वार्थियों ने उन्हें बांट कर अपना हित साधा। उनका एकीकरण या संघीकरण न्याय की बात है। जितनी जल्दी उसका वातावरण बन सके, उतना अच्छा है। मगर इसराइल में हिटलर के हाथों सताए हुए यहूदियों को बसाने के लिए फ़िलस्तीन में बसे हुए अरब बुरी तरह सताए और उजाड़े गए, जिनकी बहाली की कोई गंभीर कोशिश नहीं हुई। वो आज भी वैसे ही ‘ख़ानाबर्बाद’ है जैसे 30 साल पहले हुए थे। उनकी आबादकारी के सवाल को जोड़े बिना अरब-इसराइल समस्या का कोई हल ढूँढ़ना अन्यायसंगत होगा।

‘ज्ञानवापी’ और ‘बाबरी’ (मस्जिद) की बात सही हो सकती है। मैं उससे इंकार नहीं करता कि मंदिरों को मस्जिदों में परिवर्तित करने का कुकर्म नहीं किया गया। फिर भी आज कोई भी ऐतिहासिक तथ्य ऐसा नहीं है, जो परिवर्तनीय न हो…।

इसराइल को अरब तो क्या पूरी तरह हिंदुस्तान ने भी मान्यता नहीं दी है। हमारा दूत-व्यवहार उनसे अब तक नहीं है। इसलिए यह मान कर चलना होगा कि उसका कोई अस्तित्व असंतोष और प्रतिरोध का विषय है और वह गई गुज़री बात की तरह पच नहीं सका है। मैं नहीं समझता कि इसराइल के वजूद को मिटा देने का मतलब कोई बीस लाख आदमियों को उजाड़ देना होगा। शायद इसका तात्पर्य यही हो कि उजड़े हुए फ़िलस्तीनी अरबों को भी नागरिकता की सुविधा मिले। इस जायज़ मांग की तरफ़ आंखें मूँद कर अंग्रेज़ और अमरीकी हल्क़े इसराइल के विस्तार के लिए और अरब-भूमि दिलाने की आवाज़ उठा रहे हैं, और स्वेज़ का साझीदार बनाने के लिए प्रयत्नशील हैं। आपकी अरब-इसराइल नीति में अरब शरणार्थियों के पुनर्वास का हल जोड़ना ज़रूरी है।

इस तरह आप मुलाहिज़ा फरमाएंगे कि इसराइल की समस्या तिब्बत ही जैसी है। वहां एक ख़ूंख़्वार क़ौम ने अपनी हद से बढ़ती हुई आबादी को बसाने के लिए एक शांतिप्रिय और दुर्बल जनसमूह का अपनी भूमि में सांस लेना दुर्लभ कर रखा है। आख़िर तिब्बत की आज़ादी का मतलब यही है ना कि वहां के असली बाशिंदे अपने ढंग से रह सकें और अपने देश की मनचाही व्यवस्था कर सकें। मेरी तुच्छ राय में इसराइल के अस्तित्व से इनकार का अर्थ यही है कि वहां के असली बाशिंदे भी अपनी मातृभूमि पर आज़ादी से रह सकें।

मैं तो आपसे सीखना और पाना इज़्ज़त और आबरू की बात समझता हूँ। लेकिन मेरी बड़ी अदब के साथ यह प्रार्थना है कि आप अरब-इसराइल समस्या को फिर से परखें। मैं तो अपनी बेचैनी आप तक पहुंचा ही दिया करता हूँ। आशा है, आप भी मेरे सुधार की तकलीफ़ सहते रहेंगे।

आपका

*सिब्ते मोहम्मद*

अकबरपुर, 30.07. 1967

इसके बाद राममनोहर लोहिया की ओर से सिब्ते मोहम्मद को कोई जवाब नहीं मिला। लोहिया के निजी सचिव अध्यात्म त्रिपाठी की ओर से केवल एक लाइन जवाब आया। आपका ख़त राममनोहर लोहिया को मिला, धन्यवाद। जब डॉक्टर साहब फ़र्रुख़ाबाद जायेंगे, उसकी सूचना हम आपको दे देंगे।”       

(लोक सभा में लोहिया, खंड-15, पेज नंबर 234-242)

✒️आलेख:-क़ुरबान अली(क्रमशः जारी। लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और इस समय भारत में समाजवादी आंदोलन के इतिहास का दस्तावेजीकरण कर रहे हैं।)

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